गुरुवार, 7 फ़रवरी 2008

आधुनिकता की अंधी दौड़

ये आधुनिकता की अंधी दौड़, न जाने कहाँ ले जायेगी ?
सोचता हू, तो डर जाता हू,
ये संसकृति, सिद्धांत और आदर्शो की विरासत, अब कब तक टिक पायेगी ?
ये आधुनिकता की अंधी दौड़, न जाने कहाँ ले जायेगी ?

अब ग्रहस्थी के दोनों स्तंभ, सुख के संसाधन जुटाते है,
चार हाथों से अर्थ बटोर, वे फुले ना समाते है,
कोई शक नहीं जो ये पीढ़ी, जरुरत से कुछ जयादा जुटा लाएगी,
पर क्या, भावना, लगाव और शांति की अनमोल निधि, अक्षुण रख पायेगी ?
ये आधुनिकता की अंधी दौड़, न जाने कहाँ ले जायेगी ?

वो नारी जिसे करूणा, दया और प्रेम की मूर्ति कहा जाता था,
जिनके त्याग और मातृत्व की ताकत के आगे, नर खुद को झुका पाता था,
आधुनिकता के इस दौर में उसने खुद को किस हद तक निचे ला डाला है,
फिर भी दंभ देखो, कहती है खुद को किस खूबी से संभाला है,
ये झूठे दिखावे और बनावटी प्रतिस्प्रधा ही होड़ में,
क्या कुछ ना कर जाएँगी, और तनिक ना शर्मायेंगी,
पर जो प्रकृति है उनका और कर्तव्य भी, उसे करते खुद को पिछडा पाएँगी,
ये आधुनिकता की अंधी दौड़, न जाने कहा ले जायेगी ?
सोचता हू , तो कॉप जाता हू,
ये मातृत्व, त्याग और प्रेम की मिसाल, क्या अब खोजने से भी मिल पायेगी ?

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी........आधुनिकता कि यह अंधी दौड़ प्रश्नों के घेरे में है...
    पैसे के लिए सारी व्यवस्था चरमरा गई है ,
    पर ...मही डोलेगी,गगन डोलेगा,
    इस नाश के उद्धार के लिए हरी का जन्म होगा,लोगों की कलम कुछ कर दिखायेगी........

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  2. "फिर भी दंभ देखो, कहती है खुद को किस खूबी से संभाला है,"

    कविता बहुत ही सुन्दर बन पढ़ी है ,पर इसके भाव से मैं सहमत नहीं हूँ.
    आधुनिकता के दौड़ में सामाजिक मूल्यों का ह्रास हुआ है,परन्तु इसमें केवल नारी का ही रूप विद्रूप नहीं हुआ है.
    नारी आज जिस भी मुकाम पर है,यह तो सदियों से उसको दोयम दर्जे में रखने की प्रतिक्रिया ही है.

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